Monday, January 18, 2016

आयुर्वेद का मूलाधार -


आयुर्वेद का मूलाधार 

त्रिदोष सिद्धान्त

आयुर्वेद में त्रिदोष सिद्धान्त’ की विस्तृत व्याख्या हैवातपित्तकफ-दोषों के शरीर में बढ़ जाने या प्रकुपित होने पर उनको शांत करने के उपायों का विशद् वर्णन हैंआहार के प्रत्येक द्रव्य के गुण-दोष का सूक्ष्म विश्लेषण हैऋतुचर्या-दिनचर्याआदि के माध्यम में स्वास्थ्य-रक्षक उपायों का सुन्दर विवेचन है तथा रोगों से बचने व रोगों की चिरस्थायी चिकित्सा के लिए पथ्य-अपथ्य पालन के लिए उचित मार्ग दर्शन है । आयुर्वेद  में परहेज-पालन के महत्व को आजकल आधुनिक डाक्टर भी समझने लग गए हैं और आवश्यक परहेज-पालन पर जोर देने लग गए हैं । लेखक का दृढ़ विश्वास है कि साधारण व्यक्ति को दृष्टिगत रखते हुए यहां दी जा रही सरलीकृत जानकारी से उसे रोग से रक्षारोग के निदान तथा उपचार में अवश्य सहायता मिलेगी ।
त्रिदोष सिद्धान्त:
आयुर्वेद की हमारे रोजमर्रा के जीवनखान-पान तथा रहन-सहन पर आज भी गहरी छाप दिखाई देती है । आयुर्वेद की अद्भूत खोज है - त्रिदोष सिद्धान्त’ जो कि एक पूर्ण वैज्ञानिक सिद्धान्त है और जिसका सहारा लिए बिना कोई भी चिकित्सा पूर्ण नहीं हो सकती । इसके द्वारा रोग का शीघ्र निदान और उपचार के अलावा रोगी की प्रकृति को समझने में भी सहायता मिलती है ।
आयुर्वेद का मूलाधार है- त्रिदोष सिद्धान्त’ और ये तीन दोष है- वातपित्त और कफ । त्रिदोष अर्थात् वातपित्तकफ की दो अवस्थाएं होती है - 1.समावस्था (न कमन अधिकन प्रकुपितयानि संतुलितस्वाभाविकप्राकृत) 2.विषमावस्था (हीनअतिप्रकुपितयानि दुषितबिगड़ी हुर्इअसंतुलितविकृत) । वास्तव में वातपित्तकफ, (समावस्था) में दोष नहीं है बल्कि धातुएं है जो शरीर को धारण करती है तभी ये दोष कहलाती है । इस प्रकार रोगों का कारण वातपित्तकफ का असंतुलन या दोष नहीं है बल्कि धातुएं है जो शरीर को धारण करती है और उसे स्वस्थ रखती है । जब यही धातुएं दूषित या विषम होकर रोग पैदा करती हैतभी ये दोष कहलाती है । इस प्रकार रोगों का कारण वातपित्तकफ का असंतुलन या दोषों की विषमता या प्रकुपित होनारोगस्तु दोष वैषम्यम्’ । अत: रोग हो जाने पर अस्वस्थ शरीर को पुन: स्वस्थ बनाने के लिए त्रिदोष का संतुलन अथवा समावस्था में लाना पड़ता है ।
जब शरीर में सदा विद्यमान ये वातपित्तकफ तीनोंउचित आहार-विहार के परिणाम स्वरूप शरीर में आवश्यक अंश में रहकरसमावस्था में रहते हैं और शरीर का परिचालनसंरक्षण तथा संवर्धन करते हैं तथा इनके द्वारा शारीरिक क्रियाएं स्वाभाविक और नियमित रूप से होती है जिससे व्यक्ति स्वस्थ्य एवं दीघायु बनता है तब आरोग्यता की स्थिति रहती है । इसके विपरीत स्वास्थ्य के नियमों का पालन न करनेअनुचित और विरूद्ध आहार-विहार करनेऋतुचर्या-दिनचर्याव्यायाम आदि पर ध्यान न देने तथा विभिन्न प्रकार के भोग-विलास और आधुनिक सुख-सुविधाओं में अपने मन और इन्द्रियों को आसक्त कर देने के परिणाम स्वरूप ये ही वातपित्तकफप्रकुपित होकर जब विषम अवस्था में आ जाते हैं जब अस्वस्थता की स्थिति रहती है। वातपित्तप्रकुपति होकर जब विषय अवस्था में आ जाते हैं तब अस्वस्थता की स्थिति रहती है। प्रकुपित वातपित्तरस रक्त आदि धातुओं को दूषित करते हैयकृत फेफड़े गुर्दे आदि आशयों/अवयवों को विकृत करते हैउनकी क्रियाओं को अनियमित करते हैं और बुखारदस्त आदि रोगों को जन्म देते हैं जो गम्भीर हो जाने पर जानलेवा भी हो सकते हैं । अत: अच्छा तो यही है कि रोग हो ही नही । इलाज से बचाव सदा ही उत्तम है ।
सारांश यह है कि त्रिदोष-सिद्धांत’ के अनुसार शरीर में वातपित्तकफ जब संतुलित या सम अवस्था में होते हैं तब शरीर स्वस्थ रहता है । इसके विपरीत जब ये प्रकुपित होकर असन्तुलित या विषम हो जाते हैं तो अस्वस्थ हो जाता है।
रोगों पर आरम्भ से ध्यान न देने से ये प्राय: कष्टसाध्य या असाध्य हो जाते हैं । अत: साधारण व्यक्ति के लिए समझदारी इसी में है कि यह यथासंभव रोग से बचने का प्रयत्न करेन कि रोग होने के बाद डॉक्टर के पास इलाज के लिए भागें ।
अत: रोग से बचने और स्वस्थ रहने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आयुर्वेद-सम्मत ऐसा आहार-विहार अपनाना चाहिए जिससे त्रिदोष की विषमावस्था अर्थात् वात-प्रकोपपित-प्रकोप और कफ-प्रकोप से बचा जा सकें और यदि गलत आहार-विहार के कारण किसी एक या अधिक दोष के प्रकुपित हो जाने से किसी रोग की उत्पति हो ही जाए तो पहले यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि रोगी में किसी दोष का प्रकोप हुआ है । रोगी की प्रकृति कौन सी हैअर्थात वात (बादी) प्रकृति है या पित्त (गर्म) प्रकृति य कफ (ठंडी) प्रकृतिइसके अतिरिक्त निदान करने समय रोगी की आयुमानसिक दशाशारीरिक बलरोग की अवस्थादेशऋतु काल,मानसिक आदि पर भी विचार कर लेना चाहिए । रोग की जड़ से समाप्त करने के लिए या स्थायी रूप से दूर करने के लिए यह आवश्यक है । फिर जिस दोष का प्रकोप हुआ है उस प्रकृति वातपित्तकफ दोष के शमन के लिए रोगी की प्रकृति को शान्त करने वाले आहार-विहार को अपनाना चाहिए । जैसे यदि कफ-प्रकोप जान पड़े जो कफवर्धक आहार से बचना चाहिएसाथ ही कफशामक आहार-विहार को अपनाना चाहिए ।
प्रकुपित दोष की पहचान एवं शान्ति के लिए आगे एक तालिका दी जा रही है । इसकी सहायता से एक साधारण व्यक्ति भी आसान से यह जान सकेगा कि 1. वातपित्तकफ के अलग-अलग गुण या स्वरूप क्या हैं? 2. इनके प्रकोप के लक्ष्ण क्या है? 3. प्रकुपित या बढ़े हुए दोष को शान्त करने वाले आहार-विहार कौन-कौन से हैं और उन्हें बढ़ाने या प्रकुपित करने वाले आहार-विहार कौन-कौन से हैं?
दोष और रस:-
दोषों के प्रकोप और शमन में रसों का भी बड़ा योगदान है । आयुर्वेद में छह रस माने गये हैं:-
1. अम्ल (खट्टा), 2. मधुर (मीठा), 3. लवण (नमकीन), 4. कटु (कड़वा), 5. तिक्त (चरपरा), 6. कषाय (कसैला)।
प्रत्येक व्यक्ति को संतुलित रूप में इन छ: ही रसों के स्वाद का आनन्द लेना चाहिए । यदि अपनी प्रकृति को समझकर (प्रकृति की पहचान के लिए अध्याय 4 देखें) इन छ: रसों का मनुष्य उचित उपयोग करे तो उसका आहार सुखदायी भी होगा और वातपित्तकफको समावस्था में रखने में भी सहायक होगा । इसके विपरीत यदि रसों का अनुचित और मनमाना उपयोग करेगा तो उसका आहार दोषों को कुपित करने वाला होकर अनेकानेक रोगों की उत्पत्ति में सहायक होगा।
आयुर्वेद के अनुसार प्रभाव की दृष्टि से तीन-तीन रस वातपित्त और कफ को बढ़ाने वाले होते है और तीन-तीन ही तीनों को शान्त करने वाले होते हैं 
कफवर्धक-मीठेखट्टेनमकीन। कफशामक-कडवेचरपरेकसैले।
पित्तवर्धक-कडवेनमकीनखट्टे। पित्तशामक-मीठेचरपरेकसैले।
वातवर्धक-कड़वेचरपरेकसैले। वातशामक-मीठेखट्टेनमकीन।
मीठेखट्टेऔर नमकीन जितने पदार्थ हैं वे कफ को बढ़ाते हैं । नमकीन और मीठेखट्टेपदार्थ पित्त को बढ़ाने वाले हैं । कड़वे चरपरेकसैले पदार्थ वायु को बढ़ाने वाले हैं । जो रस कफ को बढ़ाते हैं । वे (मीठेखट्टेनमकीन) ही वायु को शान्त करते हैं । मीठीचरपरीकसैली चीजें पित्त को शान्त करती है । कड़वी चरपरीकसैली चीजें पित्त को शान्त करती है । उदाहरणार्थ - कफ-प्रकृति के व्यक्ति को मीठेखट्टेनमकीन चीजों को कम मात्रा में लेना चाहिए और कड़वी चरपरी और कसैली चीजों को अधिक मात्रा में खाना चाहिए ताकि कफ बढ़ने न पाए ।
दोष और धातुएं:-
वातपित्तकफ का प्रकोप आहार-विहार के अतिरिक्त धातुओं के प्रभाव से भी होता है । जैसेवात-ग्रीष्म ऋतु में संचित होता हैवर्षा ऋतु में कुपित रहता है और शरद ऋतु में शान्त रहता है । पित्त-वर्षा ऋतु में संचितशरद ऋतु में कुपित और हेमन्त ऋतु में शान्त रहता है । कफ- शिशिर ऋतु में संचितबसन्त में कुपित और ग्रीष्म-ऋतु में शान्त होता है।



दोष
संचय
प्रकोप
शमन
वात
ग्रीष्म
वर्षा
शरद
(ज्येष्ठ-आषाढ़)
पित्त
वर्षा
शरद
हेमन्त
(सावन-भादों
(आश्विन-कार्तिक)
(मार्गशीष-पौष)
कफ
शिशिर
बसन्त
ग्रीष्म
(माघ-फाल्गुन)
(चैत्र-बैसाख)
  




 अत: ऋतुओं के लक्षण जानकर उसके अनुसार आचरण करने से व्यक्ति स्वस्थसुखी और दीर्घायु रह सकता है । वर्षा ऋतु में प्रकुपित वात का,शरद ऋतु में पित्त का और बसन्त ऋतु में कफ का शमन होऐसा आहार-विहार होना चाहिए ।
ऋतुओं के अलावा जीवन-काल के अनुसार भी दोष प्रकुपित होते है जैसे बाल्यावस्था में कफ का प्रकोपयुवावस्था में पित्त का प्रकोप और वृद्धावस्था में वात का प्रकोप होता है । इसी प्रकार दिन किस-किस समय किस दोष का जोर रहता हैयह बताते हुए कहा गया है कि दिन के प्रथम प्रहर में वात कादोपहर में पित्त का और रात्रि में कफ का जोर रहता है । किन-किन दशाओं में त्रिदोष प्रकुपित होते है इस बात की सूक्ष्मता से छानबीन करते हुएआयुर्वेद में यह भी कहा गया है कि भोजन करने के तुरन्त बाद ही कफ की उत्पत्ति होती हैभोजन पचते समय पित्त का प्रकोप होता है और भोजन के पाचन के बाद वायु का प्रकोप आरम्भ होता है । इसीलिए भोजन के तुरन्त बाद कफ की शन्ति के लिए पान खाने की प्रथा का प्रचलन है । यही नहींआयुर्वेद ने प्रत्येक जड़ी-बूटी और खाद्य-पदार्थ को,त्रिदोष सिद्धान्त की कसौटी पर कसते हुए उनके गुण-दोषों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है और प्रकुपित दोष की पहचान और उसकी शान्ति के उपाय बताये हैं 
प्रकुपित दोष की पहचान
वात प्रकोप
वात का स्वरूप
वात रूखाशीतलसूक्ष्मचंचलहल्काघाव भरने वालायोगवाही और रजोगुण वाला है । यह समस्त धातु-मलादि का विभाग करता है और समस्त शारीरिक क्रियाओं को गति देता है । तीनों दोषों में सर्वाधिक बलवान वात है जिसके बिना पित्त और कफ अपने आप में लूले-लंगड़े हैं । वास्तव में वायु हद्य और वात नाड़ी की चालक है और इनके कारण ही आयु और जीवन हैं । आयुर्वेदानुसार वात के पांच प्रकार है - उदानवायुप्राणवायुसमानवायुअपानवायुव्यानवायु ।
वात प्रकोप के लक्षण:
Ø   शरीर का रूखा-सूखा होना ।
Ø   धातुओं का क्षय होना या तन्तुओं के अपर्याप्त पोषण के कारण
 शरीर का सूखा या दुर्बला होते जाना।
Ø   अंगों की शिथिलतासुत्रता और शीलता।
Ø   अंगों में कठोरता और उनका जकड़ जाना।

वात प्रकोप
त्वचा काखासकर पैरों की बिवाइयांहथेलियांहोंठआदि का फटना ।

नाखूनकेश आदि का कड़ा और रूखा होना ।

हाथपैरोंगर्दनआदि का कांपना और फड़कना ।
अंगों और नाड़ियों में खिंचाव होनासुइंया चुभनेतोड़ने या झटका लगने,मसलनेकाटने जैसी पीड़ाएं होना ।
जोड़ों में दर्द होनाजोड़ों का चट-चट करना ।
अंगों में वायु का भरा रहना ।
पेट का गैस से फूलना और अपानवायु का अधिक निकलना । डकार या हिचकी आना ।
भूख- प्यास अनियमित अर्थात् कभी ज्यादाकभी कम लगना ।
मुख का सूखनास्वर का कर्कश होना ।
स्वाद का कसैला होना ।
मल-मूत्र व पसीना कम आना और अनियमित आना ।
कब्जियत रहना ।


वात प्रकोप

नींद का न आना । जम्हाइंयासुस्ती व थकान का अधिक आना।
नाड़ी का तेज चलना । सांप की चाल के समान टेढ़ी-मेढ़ी गतियुक्त नाड़ी।
वातप्रधान रोग और व्याधियां होनाजेसे -अद्वार्गपक्षाघातसंधिवातगठियागृघ्रसीवायुगोला उठनावातज्वर होनाकम सुनार्इ देना या बहरापन होनास्नायु संस्थान का कमजोर हो जाना और उससे संबंधित रोग का होना।
वात के प्रकुपित होने के विपरीत वात के जरूरत से कम होने पर - अंगों में शिथिलताबोलने की शक्ति में कमीबलगम और आंव की उत्पति होती है और प्राय: कफप्रकोप के लक्षणों से मिलते जुलते लक्षण उत्पन्न होते हैं।  वातवर्धक - आधुनिक चिकित्सा उपकरणों द्वारा बिजलीवायलेट किरणे एक्स-रेंरेडियमवाइब्रेटरआदि का अवांछित प्रयोग।
Ø    मानसिक अशान्ति या लगातार तनावयुक्त या चिन्तामग्न रहना। हृदयभेदक अत्याधिक शोक का अनुभव करना। भयभीत रहना। चित्त की चंचलताधैर्यहीनताअत्याधिक क्रोधउत्तेजनाअत्याधिक रति व वीर्यनाश अथवा अन्य मानसिक विकृतियां।
Ø    आधुनिक प्रकृतिविरुद्ध रहन-सहन व जीवन शैली का अपनाना - जैसे लगातार कामोत्तेजनापूर्ण मनोरंजनभ्रमणतेज सवारी जैसे वायुयानकार आदि का अधिक प्रयोग। प्रदूषितशोरभरा व उत्तेजनापूर्ण वातावरण। अत्याधिक भोग विलास और कामवासना में डूबे रहना। आधुनिक दर्दनाशक व शुष्क औषधियों का अवांछित और लगातार लम्बे समय तक प्रयोग। झूठे मनोरंजन और गम गलत के नाम पर एल.एस.डी.हीरोइन जैसी खतरनाक ड्रग्स का सेवन। टेलीविजनकम्पयूटर के आगे अधिक देर तक लगातार टकटकी लगाकर देखते रहनाउंची आवाज के संगीत जैसे रॉक संगीतअपाचारेपसंगीत आदि का लगातार सुनना।
Ø    वातनाशक/वातशामक - तथा पेट के नीचे पेडू पर तिल के तेल से पांव के तलवों की मालिश।
-  स्नेहपान-शुद्ध वात व्याधि में स्नेहपान अर्थात् घीतेल आदि को अकेले अथवा संस्कारित करके सेवन करना चाहिए। एरण्ड तेल आदि से विरेचन (जुलाब) देना।
-  एनीमा लेना या वस्ति क्रिया कब्ज न होने दें।
-   उष्ण पानी से स्नानउष्ण जल पीना।
-   दिन में आठ-दस गिलास पानी पीना।
मन को स्थिर रखने के लिए इश्वार्भ्क्ति स्वाध्याययोग-प्राणायामब्रह्मचर्य-पालन आदि अपनाना।

त्रिदोष: वात, पित्त, कफ



त्रिदोष का संतुलित और साम्यावस्था में रहना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। जिस तरह बाहरी जगत में अग्नि वायु द्वारा वृद्धि प्राप्त करती है तो अग्नि को नियन्त्रित करने का कार्य जल तत्व करता है अन्यथा अग्नि सब कुछ जलाकर भस्म कर देती है उसी तरह आन्तरिक जगत में यानी हमारे शरीर के अन्दर वायु द्वारा वृद्धि प्राप्त पित्त यानी अग्नि यदि कफ द्वारा नियन्त्रित न हो पाये तो शरीर की धातुएं भस्म होने लगती है। इसे इस तरह समझे कि वातपित्तऔर कफ तीनों मिलकर शरीर की चयापचयी प्रक्रियाओं का नियमन करते है। कफ (Anabolism) उपचय का,वात  अपचय (Catabolism) का और पित्त चयापचयी (Metabolism) का संचालन करता है। यानी यदि वात की वृद्धि हो जाए तो शरीर में अपचय अधिक होने लगता है और शरीर में क्षयकारी प्रक्रियाएं बढ़ती है। इसे इस स्वाभाविक और प्रकृतिक उदाहरण से समझना और आसान होगा कि जीवन के आरम्भिक वर्षो मे यानी किशोरवस्था तक कफ-दोष स्वाभाविक रूप से प्रबल रहता है क्योंकि यह शारीरिक वृद्धि और विकास का काल होता है और इस दौरान उपचयकारी प्रक्रियाओं की आवश्यकता रहती है। जीवन के  मध्य के वर्षो में यानी युवावस्था मे पित्त दोष प्रबल रहता है क्योंकि इस काल में शरीर व्यस्क हो जाता है और स्थिरता की जरूरत रहती है। वृद्धावस्था में वात दोष स्वाभाविक रूप से प्रबल रहता है क्योंकि यह वयोवृद्धि यानी शारीरिक क्षय यानी अपचयकारी (Catabolic)  प्रक्रियाओं के प्रभावी होने का काल होता है।
वात दोष:- वात को मनुष्य के शरीर में गति का मूल तत्व या सिद्धान्त कहा जा सकता है। यह शरीर में सभी प्रकार की जैविक गति एवं क्रियाओं का संचालन करता है। यह चयापचय सम्बंधी सूक्ष्म से सूक्ष्म परिवर्तनों को उत्पन्न करने वाला तत्व हैं। श्वसन क्रियापेशियोंऊत्तकों व कोशिकाओं में होने वाली गतिज प्रक्रियाएंशरीर में रक्त और तन्त्रिकीय संवेगों का संचरणउत्सर्जन आदि को संचालित करने वाला वात दोष हमारी भावनाओं और अनुभूतियों को भी संचालित करता है जैसे भयचिन्तानिराशादर्दऐंठनकम्पन ताजगी आदि। वात संबधी रोग अधिक आयु होने पर तीव्र हो जाते है क्योंकि इस काल में वात प्राकृतिक रूप से शरीर में प्रबल रहता है।
पित्त दोष:- इस दोष में अग्नि तत्व की प्रधानता होती है। पित्त को अग्नि कहा जाता है हालाकि यह किसी अग्नि-कुण्ड की अग्नि की तरह दिखाई नहीं देता है। बल्कि चयापचय प्रक्रियाओं के रूप में अभिव्यक्त होता है। इसलिए इसके अन्तर्गत आहार का पाचन और पूरे शरीर की चयापचय प्रक्रियाओं में उपयोगी रसायन जैसे हारमोन्सएन्जाइमस आदि आते है। पित्त दोष मुख्यत:ग्रहण किये गये बाहरी तत्वों को शरीर के लिए उपयोंगी आन्तरिक तत्वों में परिवर्तित करता है यानी केवल आहार का पाचन ही नहीं बल्कि कोशिकीय स्तर पर होने वाली प्रक्रियाओं का भी संचालन यह दोष करता है। शारीरिक स्तर पर जहां पित्त आहार का पाचनअवशोषण,पोषणचयापचयशारीरिक तापमानत्वचा का रंग आदि का संचालन करता है वहीं मानसिक स्तर पर मेधाबुद्धि की तीव्रता,, क्रोधघृणाईर्ष्या  आदि का भी संचालन करता है। पित्त संबधी रोग मध्यम आयु के लोगों में अधिक तीव्र होते है क्योंकि आयु के इस काल में पित्त प्राकृत रूप से प्रबल रहता है।
कफ दोष:- कफ दोष को जैविक जल कहा जा सकता है। यह दोष पृथ्वी और जल इन दो महाभूतों द्वारा उत्पन्न होता है। पृथ्वी तत्व किसी भी पदार्थ की संरचना के लिए आवश्यक है यानी शरीर का आकार और संरचना कफ दोष पर आधारित है। यह रोग प्रतिरोधक शक्ति देने वाला तथा उतकीय व कोशिकीय प्रक्रियाओं को स्वस्थ्य रखने वाला तत्व है। यह शरीर की स्निग्धताजोड़ों की मजबूतीशारीरिक  ताकत और स्थिरता का बनाये रखता हैं। कफ संबधी रोग जीवन के शुरूवाती वर्षो में यानी किशोरावस्था में अधिक तीव्र होते है। क्योंकि जीवन के इस काल में कफ दोष प्राकृत रूप से प्रबल होता है।

कफ-वात-पित्त आदि की चिकित्सा के बारे में संक्षेप में ही कितनी सुंदर बात कह दी गयी है।
वमनं कफनाशाय वातनाशाय मर्दनम्।
शयनं पित्तनाशाय  ज्वरनाशाय लघ्डनम्।।
अर्थात् कफनाश करने के लिए वमन (उलटी)वातरोग में मर्दन (मालिश), पित्त  नाश  के  शयन तथा ज्वर में लंघन (उपवास) करना चाहिए। आयुर्वेद शास्त्र केवल रोगी की चिकित्सा करने में ही विश्वास नहीं करताअपितु उसका तो सिद्धांत है-’’रोगी होकर चिकित्सा करने से अच्छा है कि बीमार ही न पड़ा जाय।’’ इसके लिए आयुर्वेद शास्त्रों में स्थान-स्थान पर ऐसी बातें भरी पड़ी है,जिसके अनुपालन से वैद्य की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। जैसे-
भोजनान्ते पिबेत् तक्रं वैद्यस्य किं प्रयोजनम्।।
तात्पर्य यह कि यदि रात्रि को शयन से पूर्व दुधप्रात:काल उठकर जल और भोजन के बाद तक्र (मठ्ठा) पिये तो जीवन में वैद्य की आवश्यकता ही क्यों पड़ेंइस प्रकार के सूत्रों के आधार पर ग्राम्य जीवन में बारहों मास के उपयोगी खाद्यों का सुंदर संकेत इस प्रकार कर दिया गया है, ,
सावन हर्रे भादौं चीतक्वार मास गुड़ खाये मीत।
कातिक मूली अगहन तेलपूषे करै दुध से मेल।
माघे घी व खीचड़ खायफागुन उठि कै प्रात नहाय।
चैत मास में नीम व्यसवनिभर बैसाखे खाये अगहनि।।
जेठ मास दुपहरिया सोवैताकर दुख अषाढ़ में रोवै।।
बारहों मास के इन विधि-खाद्यों के अविरिक्त निषेध-खाद्य भी है
जिन्हें भूलकर भी ग्रहण न करें जैसे-
चैते गुड़ बैसाखे तेलजेठे पथ आषाढ़े बेल।
सावन साग न भादों दहीक्वार करैला कातिक मही।।
अगहन जीरा न पूषे घनामाघे मिश्री फागुन चना।।
इन बारह से बचे जा भाई ,ता घर कबहूँ वैद न जाई ।।          
आयुर्वेद का सिद्धांत है कि-’’भुक्त्वा शतपदं गच्छेच्छायायां हि शनै: शनै:’’। भोजन करने के बाद छाया में सौ पग धीरे-धीरे चलना चाहिए शयन से कम से कम 2-3 घंटे पहले ही भोजन कर लेना चाहिएअन्यथा कब्ज रहेगी। इसके अतिरिक्त दीर्घायु के लिये भी एक जगह बड़ा सुंदर संकेत कर दिया है कि-
वामशायी द्विभुजानो भण्मूत्री द्विपुरीषक:।
स्वल्पमैथुनकारी च शतं वर्षणि जीवति।।
अर्थात बायीं करवट सोने वालादिन में दो बार भोजन करने वालाकम से कम छ: बार लघुशंकादो बार शौच जानेवाला,  गृहस्थ में आवश्यक होने परस्वलप-मैथुनकारी व्यक्ति सौ वर्ष तक जीता है।
किसी ने सही कहा है -
एक बार जाए योगी । 
दो बार जाए भोगी । 
बार बार जाए रोगी ।