Tuesday, November 5, 2013

सरदार पटेल की विरासत

जहां पंडित नेहरू समाजवादी और वामपंथी विचारधारा के चश्मे से भारत और शेष विश्व को देखते थे, वहीं पटेल का मानस विशुद्ध रूप से भारत की सनातन संस्कृति और राष्ट्रवाद से प्रेरित था !.......

 सरदार पटेल की विरासत

      पिछले दिनों गुजरात में सरदार वल्लभ भाई पटेल की विश्व में सबसे ऊंची प्रतिमा स्थापित करने के लिए हुए शिलान्यास के साथ ही कांग्रेस ने विवाद छेड़ दिया। आरोप लगाया गया कि सरदार पटेल की विरासत को भारतीय जनता पार्टी अगवा करना चाहती है। परंतु प्रश्न यह है कि क्या भारत के महापुरुषों को जातिगत और दलगत दृष्टि से देखना चाहिए? भगवान राम, श्रकृष्ण से लेकर शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, शहीद भगत सिंह, महात्मा गांधी, वीर सावरकर आदि न तो कभी जनसंघ के सदस्य रहे और न कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे। क्या भाजपा कार्यकर्ताओं को इन महान विभूतियों को स्मरण करने और उन्हें प्रेरणास्नोत मानने का अधिकार नहीं है? बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और कांग्रेस का हमेशा छत्ताीस का आंकड़ा रहा। अपने जीवनकाल में उन्होंने कभी भी गांधीजी और पंडित जवाहर लाल नेहरू को अपना नेता नहीं माना। आज दलितों के साथ शेष समाज उन्हें आदरपूर्वक संविधान निर्माता के रूप में देखता है। उन्होंने अपने जीवनकाल में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना की थी तो क्या उनकी विरासत पर केवल इंडिपेंडेंट लेबर और रिपब्लिकन पार्टी का अधिकार है?

वास्तव में कांग्रेस आजादी से पूर्व एक राजनीतिक दल कम और स्वतंत्रता के लिए आंदोलन अधिक थी, जिसमें हिंदू महासभा, समाजवादी से लेकर हर तरह की विचारधारा के लोग सम्मिलित थे। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि सरदार पटेल और पंडित नेहरू दोनों का चिंतन और भारतीय इतिहास के प्रति दृष्टिकोण बहुत से मामलों में अलग-अलग था, परंतु देश की स्वाधीनता प्राप्ति का साझा लक्ष्य उन्हें साथ बांधे हुए था। जहां पंडित नेहरू समाजवादी और वामपंथी विचारधारा के चश्मे से भारत और शेष विश्व को देखते थे, वहीं पटेल का मानस विशुद्ध रूप से भारत की सनातन संस्कृति और राष्ट्रवाद से प्रेरित था। भारत की बहुलतावादी सनातन संस्कृति में आस्था के कारण सरदार पटेल सही मायनों में सेक्युलर थे, किंतु उनकी पंथनिरपेक्षता वोट बैंक से प्रभावित नहीं थी। उनका सेक्युलरवाद सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में आड़े नहीं आया, जिसका पंडित नेहरू ने विरोध किया था। यदि पटेल ने दृढ़ता नहीं दिखाई होती तो आज सोमनाथ का मसला भी अयोध्या की तरह विवादित बना रहता। पटेल आस्थावान थे। दूसरों की आस्था का सम्मान करते थे, किंतु देशहित और भारत की सनातन परंपरा की कीमत पर नहीं।

पंडित नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने पटेल के वैचारिक अधिष्ठान को उनकी मृत्यु के साथ ही तिलांजलि दे दी और योजनाबद्ध ढंग से उन्हें विस्मृत करने का षड्यंत्र भी रचा। आश्चर्य नहीं कि केंद्रीय सरकार द्वारा वित्तापोषित दर्जनों योजनाओं में से केवल एक सरदार पटेल के नाम पर है और लगभग बाकी सभी नेहरू-गांधी वंश को समर्पित हैं। शाहबानो के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलटना, मुसलमानों के लिए समान नागरिक संहिता नहीं बनाना, हज सब्सिडी, मदरसों के लिए अनुदान, मुल्ला-मौलवियों को मुसलमानों के नेता के रूप में स्वीकार करना, मजहब के आधार पर आतंकियों को छोड़ना और उनके पक्ष में विधानसभा का सत्र बुलाकर सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करना, इन सबके लिए पटेल के सेक्युलरवाद में कोई स्थान नहीं है।

सरदार पटेल मजहब के आधार पर नागरिकों में भेदभाव के खिलाफ थे। क्या कारण है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के ठीक बाद से जिन लोगों को पंडित नेहरू का प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन प्राप्त था, वे सरदार पटेल के न केवल घोर आलोचक थे, बल्कि उन्हें फासीस्ट, सांप्रदायिक, मुस्लिम विरोधी जैसे संबोधनों से नवाजते थे। कुछ इसी प्रकार के शब्दों का प्रयोग आज नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए होता है? इसका कारण स्पष्ट है कि संघ परिवार के वैचारिक अधिष्ठान की मूल प्रेरणा भारत की सनातन संस्कृति है, जिससे सरदार पटेल भी प्रेरित थे। चीन की तिब्बत और उसके बाद भारत पर कुदृष्टि है। इस पर अन्य राष्ट्रनिष्ठ लोगों के अतिरिक्त सरदार पटेल और तत्कालीन सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने देश का ध्यान खींचा था, परंतु वामपंथियों के आभामंडल से प्रभावित पंडित नेहरू ने उसकी अनदेखी की और परिणामस्वरूप सन 1962 में भारत को चीन के हाथों अपमानजनक पराजय का मुंह देखना पड़ा था।

कश्मीर की समस्या पंडित नेहरू की अदूरदर्शिता का जीवंत प्रमाण है। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह प्रारंभ में दुविधाग्रस्त थे, किंतु पाकिस्तानी सेना के समर्थन से जब कबीलाइयों ने प्रांत पर हमला कर दिया तो उन्होंने भारत में विलय की लिखित रजामंदी समय से भेज दी थी, किंतु पंडित नेहरू ने कश्मीर का मसला अपने हाथ में रख लिया था, जिसमें सरदार पटेल का हस्तक्षेप न्यूनतम था। शेख अब्दुल्ला की देशघाती गतिविधियां सरदार पटेल से छिपी नहीं थीं और उन्होंने पंडित नेहरू को आगाह करने की कोशिश की थी, किंतु शेख अब्दुल्ला के प्रति अतिरिक्त अनुराग के कारण पंडित नेहरू ने उनकी एक न सुनी। अगर पटेल न होते तो शायद कश्मीर की तरह देश में कई अन्य इस तरह के रक्तरंजित विवाद नासूर बनकर हमें पीड़ा देते।

पंडित नेहरू और सरदार पटेल, दोनों ही करीब 75 वर्ष तक जीवित रहे। सरदार पटेल की मृत्यु पर मैनचेस्टर गार्जियन ने लिखा था, 'एक ही व्यक्ति विद्रोही और राजनीतिज्ञ के रूप में कभी-कभी ही सफल होता है। इस संबंध में पटेल अपवाद थे।' भारत के रक्तरंजित विभाजन के दौरान देसी रियासतों के विलय के प्रश्न पर उन्होंने जैसी राजनीतिक दृढ़ता व दूरदर्शिता दिखाई, वह उनके समकालीन राजनेताओं में बहुत कम में नजर आती है। तब उनके करिश्माई नेतृत्व पर लंदन टाइम्स ने लिखा था, 'भारतीय रियासतों के एकीकरण का उनका कार्य उन्हें बिस्मार्क और संभवतया उनसे भी ऊंचा स्थान प्रदान करता है।' उनके बारे में विन्स्टन चर्चिल का कहना था, 'ऐसे व्यक्ति को भारत की सीमाओं के भीतर खुद को सीमित नहीं रखना चाहिए, पूरी दुनिया उनके बारे में और अधिक सुनने की हकदार है।'

गुजरात सरकार द्वारा स्थापित होने वाली सरदार पटेल की प्रतिमा, 'स्टेच्यु ऑफ यूनिटी' विश्व में सबसे ऊंची होगी। असल में तो आज एकीकृत भारत सरदार पटेल का सबसे बड़ा स्मारक है। जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर 552 रियासतों ने स्वेच्छा से भारत में शामिल होने की स्वीकृति दी थी। जूनागढ़ का नवाब जनविद्रोह के कारण स्वयं पाकिस्तान भाग गया था। जूनागढ़ के विलय के बाद सरदार पटेल ने हैदराबाद के निजाम की हेकड़ी भी निकाल दी। एक कुशल प्रशासक होने के कारण कृतज्ञ राष्ट्र उन्हें 'लौह पुरुष' के रूप में भी याद करता है। इन देसी रियासतों को जोड़कर उन्होंने भारत की कालजयी संस्कृति और सभ्यता को एक मूर्त रूप दिया। 'स्टेच्यु ऑफ यूनिटी' सरदार पटेल के प्रति राष्ट्र की कृतज्ञता को ही प्रकाशमान करती है। 

 

[लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं]


      

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